Wednesday, January 22, 2014

नए घरोंदों की नीव में- दो बिम्ब

 

 
नतमस्‍तक हूं
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मैने नहीं चखा
जेठ की दुपहरी में
निराई करते उस व्‍यक्ति के
माथे से रिसते पसीने को,

मैं नहीं जानता
पौष की खून जमा देने वाली
बर्फीली क्‍यारियों में
घुटनो तक डूबी
पानी में थरथराती बूढी अस्थियों को

मगर नतमस्‍तक हूं
थाली में सजी
इस रोटी के समक्ष।
0000



नए घरोंदों की नीव में
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क्या ज़रुरत है जानने की
कि कोई चिड़िया
अभी अभी गई है यहाँ से
-नई बस्ती में उजड़ा,
अपना पुराना घौसला छोड़ कर-

वो जानती है
चाहे कितना भी उजड़ जाए
घरोंदा
नए घरोंदों की नीव में,
वह सदैव
लेकर जाती है साथ अपने
कुछ तिनके
पुनर्निमाण के-
और लौटती है
पहले से कहीं ज्यादा मज़बूती से
पुनःप्रवास के लिए अपने।
0000 

Monday, June 17, 2013

नीले विस्‍तार में एक बूँद- कुछ बिम्ब

नीले विस्‍तार में

ना जाने
उसके मन में
क्‍या आई
कि अचानक
उसने मल दी
नीले विस्‍तार में
चहुंदिश कालिख !

अब तक
है सदमे में
बेचारा चॉंद
उस कालिख में
छुपाता अपना मुख ।
० ० ०  


एक बूँद

ना भीगे
दरख्त
ना पत्ते
ना ही कहीं
पडी फुहारें

फकत
एक बूँद
ऑंख से तेरी
गिरी छलक कर
हो गया मैं
पानी-पानी।
० ० ०
चित्र सौजन्य- गूगल

Friday, June 7, 2013

उठती है लहर

लहरा रही है
एक छोटी तरंग
सतह पर
उठती है कभी
अचकचा कर
धैर्य के साथ
यह जानते हुवे भी
कि धकेल दी जाएगी पुनः
उमड़ते हुए सागर की
सपाट सतह पर !

फ़िर भी
उठती है लहर
सागर के पौरुष पर
अक्षरबद्ध कविता सी
अपनी लय में !
***

Sunday, May 26, 2013

प्रणय मनस्वी वो- कुछ बिम्ब

दूर तक विस्तारित
रेगिस्तान
बढ़ता जाता निरंतर
गहराता जाता
उतना ही मैं
जल कर
सजल होता
भीतर तुम्हारे।
० ० ०


मैं तो
देह हूं मात्र
पानी
सपना है मेरा
देखता हूं
जब भी सपना
दिख जाती है
डबडबाई
तुम्‍हारी आँखें
और
हो जाता हूं
पानी पानी
० ० ०

जल ही जल
आकाश, धरती, पाताल
सरोबार।
आकंठ डूबा
प्रणय मनस्वी वो

बहता जाता
जल ही की तरह
स्‍वयं में प्रवाहित
प्रणय प्रलय सा
अखण्ड गति से
प्‍यास भरपूर।
० ० ० 
 (समस्त चित्र साभार गूगल)

Monday, April 8, 2013

थोड़ा वक्त तो लगेगा ही


अब- हमें
लौटना होगा
पुनः सम्भालना होगा
अपने इस घर को
लगानी होगी हर चीज़
करीने से
मुक्त करना होगा
घर का कोना-कोना
सन्नाटों के जालों से,
भरना ही होगा
गंदे बदबूदार गड्ढों को ।

जब भरूं - मैं;
दरारों से खिरती
पुरानी यादों के खारों को
नए अहसासों के
मीठे चूने से
तब भी तुम
यूं ही थामे रखना
मेरा हाथ !

नफ़रत की दीवारें हैं
फ़िर भी हमें
करनी है मरम्मत
थोड़ा वक्त तो लगेगा ही
तुम धीरज रखना
धरती की तरह !
**

Thursday, April 4, 2013

दो क्षणिकाऍं - वसंत के बाद


पहली बार जब
देखा था- तुम्हें
वसंत के दिन थे
मैंने तुम्हें कहा- जीवन
अबकी फिर वसंत आया
चला भी गया-
वन रह गया निरा
तुम बिन जो मै।
***

वसंत के गुजर जाने के बाद
यह जो मैं
झड चुके पत्‍तों की
सरसराहट सुनता हूं
तुम्‍हें पता है ?
इनमें में तुम्‍हारी
हँसी सुनता हूं।
***

Wednesday, April 3, 2013

तमाशा

एक जोरदार
धमाका
लहुलुहान पथ
यत्र तत्र बिखरे
रक्‍तरंजित चिथडे
कर्णभेदी चीखें
वीभत्‍स द्रश्‍य टीवी पर,
किसी बडे शहर में
बम विस्‍फोट के बाद

रिपोर्टरों की भरमार
तमाशा
मौत का तमाशा
कैमरे में
कैद करने की होड
अपनों को तलाशती भीड
हताश इधर उधर


पत्‍नी ने कहा
दस बज गए
मेरे प्रिय डेली सोप का  वक्‍त
अव्‍वाक सा मैं
रिमोट
पत्‍नी को थमा देता हूं
***