Monday, April 8, 2013

थोड़ा वक्त तो लगेगा ही


अब- हमें
लौटना होगा
पुनः सम्भालना होगा
अपने इस घर को
लगानी होगी हर चीज़
करीने से
मुक्त करना होगा
घर का कोना-कोना
सन्नाटों के जालों से,
भरना ही होगा
गंदे बदबूदार गड्ढों को ।

जब भरूं - मैं;
दरारों से खिरती
पुरानी यादों के खारों को
नए अहसासों के
मीठे चूने से
तब भी तुम
यूं ही थामे रखना
मेरा हाथ !

नफ़रत की दीवारें हैं
फ़िर भी हमें
करनी है मरम्मत
थोड़ा वक्त तो लगेगा ही
तुम धीरज रखना
धरती की तरह !
**

3 comments:

  1. होना होगा हमें एक साथ .... अपनी परम्पराओं का जीर्णोद्धार करना ही होगा

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  2. बहुत सुन्दर कविता बधाई |

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  3. नफ़रत की दीवारें हैं
    फ़िर भी हमें
    करनी है मरम्मत
    थोड़ा वक्त तो लगेगा ही
    तुम धीरज रखना
    धरती की तरह !
    **यही तो है प्रेम ....धेर्य की जमीं से उपजेगा ,.अच्छी कविता है

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