Wednesday, January 22, 2014

नए घरोंदों की नीव में- दो बिम्ब

 

 
नतमस्‍तक हूं
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मैने नहीं चखा
जेठ की दुपहरी में
निराई करते उस व्‍यक्ति के
माथे से रिसते पसीने को,

मैं नहीं जानता
पौष की खून जमा देने वाली
बर्फीली क्‍यारियों में
घुटनो तक डूबी
पानी में थरथराती बूढी अस्थियों को

मगर नतमस्‍तक हूं
थाली में सजी
इस रोटी के समक्ष।
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नए घरोंदों की नीव में
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क्या ज़रुरत है जानने की
कि कोई चिड़िया
अभी अभी गई है यहाँ से
-नई बस्ती में उजड़ा,
अपना पुराना घौसला छोड़ कर-

वो जानती है
चाहे कितना भी उजड़ जाए
घरोंदा
नए घरोंदों की नीव में,
वह सदैव
लेकर जाती है साथ अपने
कुछ तिनके
पुनर्निमाण के-
और लौटती है
पहले से कहीं ज्यादा मज़बूती से
पुनःप्रवास के लिए अपने।
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