पहली बार जब
देखा था- तुम्हें
वसंत के दिन थे
मैंने तुम्हें कहा- जीवन
मैंने तुम्हें कहा- जीवन
अबकी फिर वसंत आया
चला भी गया-
वन रह गया निरा
तुम बिन जो मै।***
वसंत के गुजर जाने के बाद
यह जो मैं
झड चुके पत्तों की
सरसराहट सुनता हूं
तुम्हें पता है ?
इनमें में तुम्हारी
हँसी सुनता हूं।
***
यह जो मैं
झड चुके पत्तों की
सरसराहट सुनता हूं
तुम्हें पता है ?
इनमें में तुम्हारी
हँसी सुनता हूं।
***
बसंत और पतझड़ की आंतरिक परिभाषा
ReplyDeleteMAN KO CHHOO LENE WAALEE BHAVABHIYKTI . BAHUT KHOOB !
ReplyDeleteसच है प्रेम से ही जीवन वसंत होता है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ !
thithur raha tha tum mileen, jeevan huaa basant.
ReplyDeletedoor hueen patjhad huaa, heroon har pl kant..
achchhee muktikayen.
बहुत सुंदर ....
ReplyDeleteआह!!
ReplyDeleteसादर
ReplyDeleteबेहद सुंदर अभिव्यक्ति , एक दर्शन है आप की कविताओं में ! वसंत , पतजड़ , बहार और जीवन पूरक से सभी प्रकृति जितनी बाहर है उतनी ही जीवन के भीतर भी !
साधुवाद !
सुंदरता से बुनी हुई कवितायेँ नरेंद्र जी !
ReplyDeleteबधाई !
बहुत खूब --वाह व्यास जी !
ReplyDeleteसच है नरेन्द्रजी, प्रेम है तो जीवन वसन्त है, नहीं तो बस अंत|
ReplyDeleteप्रेम में बसंत ....बहुत सुंदर ,बिन प्रिय मन निरा वन ....बहुत सुंदर क्षनिकाए
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