Thursday, April 4, 2013

दो क्षणिकाऍं - वसंत के बाद


पहली बार जब
देखा था- तुम्हें
वसंत के दिन थे
मैंने तुम्हें कहा- जीवन
अबकी फिर वसंत आया
चला भी गया-
वन रह गया निरा
तुम बिन जो मै।
***

वसंत के गुजर जाने के बाद
यह जो मैं
झड चुके पत्‍तों की
सरसराहट सुनता हूं
तुम्‍हें पता है ?
इनमें में तुम्‍हारी
हँसी सुनता हूं।
***

11 comments:

  1. बसंत और पतझड़ की आंतरिक परिभाषा

    ReplyDelete
  2. MAN KO CHHOO LENE WAALEE BHAVABHIYKTI . BAHUT KHOOB !

    ReplyDelete
  3. सच है प्रेम से ही जीवन वसंत होता है ।
    बहुत सुन्दर क्षणिकाएँ !

    ReplyDelete
  4. thithur raha tha tum mileen, jeevan huaa basant.
    door hueen patjhad huaa, heroon har pl kant..

    achchhee muktikayen.

    ReplyDelete
  5. सादर
    बेहद सुंदर अभिव्यक्ति , एक दर्शन है आप की कविताओं में ! वसंत , पतजड़ , बहार और जीवन पूरक से सभी प्रकृति जितनी बाहर है उतनी ही जीवन के भीतर भी !
    साधुवाद !

    ReplyDelete
  6. सुंदरता से बुनी हुई कवितायेँ नरेंद्र जी !
    बधाई !

    ReplyDelete
  7. बहुत खूब --वाह व्यास जी !

    ReplyDelete
  8. सच है नरेन्द्रजी, प्रेम है तो जीवन वसन्त है, नहीं तो बस अंत|

    ReplyDelete
  9. प्रेम में बसंत ....बहुत सुंदर ,बिन प्रिय मन निरा वन ....बहुत सुंदर क्षनिकाए

    ReplyDelete