दूर तक विस्तारित
रेगिस्तान
बढ़ता जाता निरंतर
गहराता जाता
उतना ही मैं
जल कर
सजल होता
भीतर तुम्हारे।
० ० ०
रेगिस्तान
बढ़ता जाता निरंतर
गहराता जाता
उतना ही मैं
जल कर
सजल होता
भीतर तुम्हारे।
० ० ०
मैं तो
देह हूं मात्र
पानी
सपना है मेरा
देखता हूं
जब भी सपना
दिख जाती है
डबडबाई
तुम्हारी आँखें
और
हो जाता हूं
पानी पानी।
० ० ०
जल ही जल
आकाश, धरती, पाताल
सरोबार।
आकंठ डूबा
प्रणय मनस्वी वो
बहता जाता
जल ही की तरह
स्वयं में प्रवाहित
प्रणय प्रलय सा
अखण्ड गति से
प्यास भरपूर।
० ० ०
(समस्त चित्र साभार गूगल)
नरेन्द्र व्यास जी, इस सुन्दर ब्लाग के लिए बधाई स्वीकार करें.
ReplyDeleteरचना के बारे में क्या कहें...सीधे दिल में उतरती है.
अच्छा लगा यहाँ आ कर - भावमय रचनाएँ पढ़ने को मिलीं, आभार !
ReplyDeleteShukriya Pratibha ji. aap yahaan padhare, aabhari hoon. naman !
Deleteबहुत ही सुखद अनुभव हुआ यहाँ आकर,बहुत ही सुन्दर रचनाये,आभार.
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