Sunday, May 26, 2013

प्रणय मनस्वी वो- कुछ बिम्ब

दूर तक विस्तारित
रेगिस्तान
बढ़ता जाता निरंतर
गहराता जाता
उतना ही मैं
जल कर
सजल होता
भीतर तुम्हारे।
० ० ०


मैं तो
देह हूं मात्र
पानी
सपना है मेरा
देखता हूं
जब भी सपना
दिख जाती है
डबडबाई
तुम्‍हारी आँखें
और
हो जाता हूं
पानी पानी
० ० ०

जल ही जल
आकाश, धरती, पाताल
सरोबार।
आकंठ डूबा
प्रणय मनस्वी वो

बहता जाता
जल ही की तरह
स्‍वयं में प्रवाहित
प्रणय प्रलय सा
अखण्ड गति से
प्‍यास भरपूर।
० ० ० 
 (समस्त चित्र साभार गूगल)

4 comments:

  1. नरेन्द्र व्यास जी, इस सुन्दर ब्लाग के लिए बधाई स्वीकार करें.
    रचना के बारे में क्या कहें...सीधे दिल में उतरती है.

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  2. अच्छा लगा यहाँ आ कर - भावमय रचनाएँ पढ़ने को मिलीं, आभार !

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    1. Shukriya Pratibha ji. aap yahaan padhare, aabhari hoon. naman !

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  3. बहुत ही सुखद अनुभव हुआ यहाँ आकर,बहुत ही सुन्दर रचनाये,आभार.

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